जिंदगी चावल का पानी है

तुमने जुखाम को इन्फ्लुएंजा कहना शुरू किया तो यकीन हुआ
की जिंदगी इतनी आसान नहीं है जितनी किताबों में लिखी थी।

ठंड इतनी थी की नदी भी पेड़ हो गयी थी
पर मै फिर भी बहा पत्तों की तरह

यह  उसी तरह था जैसे आखिरी महीने की तन्खवा छूट जाने का डर
नयी नोकरी की ख़ुशी में दब जाता है

302 केवल धारा नहीं होती
कभी घर आओ मेरे

तुम्हारी गर्दन पे क्या है दिखाना
कानों से सूंघते लोगो की कहानी सुनी है कभी

जिंदगी चावल का पानी है
पि लो या डूब जाओ

 

1 comment:

ताऊ रामपुरिया said...

सही कहा.

रामराम.