सुबह दो आलू के पराठे
दही के साथ
दिन में ४ पूरी
आलू की सब्जी
रायता
राजमा और चावल
सलाद में
टमाटर और खीरे, प्याज भी थी
चटनी
स्वीट डिश में
रसगुल्ले थे आज
रात को
३ रोटी
पनीर की सब्जी
अचार आम का
सलाद और
ओरेंज जूस
सोने से पहले
एक गिलास
गरमा गर्म दूध
दसियों गिलास
पानी
भी पी ही लिया होगा
दिन भर में
वो पागल होते हैं
जो भूखे रहते हैं
दिल टूटने के बाद
ब्लोगिंग ने तुड़वाई शादी
अभी कुछ दिन पहले मेरा एक रिश्ता आया था पूरे ६ महीने बाद
पर बात दूसरे दोर में पहुँचने से पहले ही किसी ने भांजी* मार दी की लड़का
ब्लोगिंग करता है,इसे कुछ काम वाम नही है और अपनी बेटी का भविष्य खतरे में मत डालो
जैसे ब्लॉग्गिंग करना निठल्लेपन की निशानी हो
लोगो को किसी की खुशी देखी नही जाती
खाने का कोई ठिकाना नही है एक टाइम का कही खाता हूँ
दूसरे टाइम कही और
नास्ते में एक सेब खा लिया बस
दिन में ऑफिस में खा लेता हूँ
रात में कभी कही , कभी कही और
कभी केले खा कर ही काम चलाना पड़ता है .रोज नास्ते में सेब खा खा कर पक गया हूँ
हर चीज की एक सीमा होती है . रोज तो कोई रसगुल्ले भी नही खा सकता
अब बस आप लोगो का ही सहारा है
आप ही नैया पार लगवाइये
अंत में
इस्तेहार:
शुशील, घरः कार्य में दक्ष, शुंदर और अल्प्वययी हो, न की जेब खाए
गरमा गरम नाश्ता भी कोई चीज होती है ग़ालिब, कोई कब तक सेब खाए
सांत्वना :
आँखों में पानी है
और दिल में दर्द
कहते हैं लोग की
रोते नही मर्द
खुलासा :
जिनके लिए लिखते थे हम कविता
उनका नाम ना रचना था ना सविता
भांजी: भांजी मारना उसे कहते हैं जब कोई लड़की वालो को ग़लत सलत सिखा कर शादी तुड़वा दे
पर बात दूसरे दोर में पहुँचने से पहले ही किसी ने भांजी* मार दी की लड़का
ब्लोगिंग करता है,इसे कुछ काम वाम नही है और अपनी बेटी का भविष्य खतरे में मत डालो
जैसे ब्लॉग्गिंग करना निठल्लेपन की निशानी हो
लोगो को किसी की खुशी देखी नही जाती
खाने का कोई ठिकाना नही है एक टाइम का कही खाता हूँ
दूसरे टाइम कही और
नास्ते में एक सेब खा लिया बस
दिन में ऑफिस में खा लेता हूँ
रात में कभी कही , कभी कही और
कभी केले खा कर ही काम चलाना पड़ता है .रोज नास्ते में सेब खा खा कर पक गया हूँ
हर चीज की एक सीमा होती है . रोज तो कोई रसगुल्ले भी नही खा सकता
अब बस आप लोगो का ही सहारा है
आप ही नैया पार लगवाइये
अंत में
इस्तेहार:
शुशील, घरः कार्य में दक्ष, शुंदर और अल्प्वययी हो, न की जेब खाए
गरमा गरम नाश्ता भी कोई चीज होती है ग़ालिब, कोई कब तक सेब खाए
सांत्वना :
आँखों में पानी है
और दिल में दर्द
कहते हैं लोग की
रोते नही मर्द
खुलासा :
जिनके लिए लिखते थे हम कविता
उनका नाम ना रचना था ना सविता
भांजी: भांजी मारना उसे कहते हैं जब कोई लड़की वालो को ग़लत सलत सिखा कर शादी तुड़वा दे
दा मेकिंग ऑफ़ हाइकु
गध, पध, कहानी, काव्य, क्षणिकाऔ में बुरी तरह सफल होने के बाद २ अक्टूबर २००८ को जब मै समीर लाल जी की पुरानी पोस्ट पढ़ रहा था तो मुझे हाइकु का असली मतलब का पता चला।
इससे पहले तो मै समझता था की
एक बहुत उदास, निराश, दुखी कवि के अंतर्मन से निकली हूक को हाइकु कहते होंगे.
आश्चर्य के कारण मेरी दोनों आँखे फटी की फटी रह गई की मुझे हिन्दी की इस परजाती के बारे में इतनी देर से पता चला। मेरे जैसे लेखक के लिए इससे शर्म की बात क्या हो सकती है.
मैंने तुंरत गूगल अंकल में सर्च मारी और हाइकु के बारे में जानकारी चाही। उन्होंने हमेशा की तरह बिना आवे टावे दिए
मुझे बताया की ये एक ऐसी जापानी कविता है जिसमे ३ पंक्तियाँ होती है और पहली पंक्ति में ५, दूसरी में ७,और तीसरी में ५ अक्षर होते हैं। छोटी कविता, इतनी छोटी की शुरू होने से पहले ही ख़तम.
प्रकर्ती का वर्णन होता है इसमे, ये भी बताया गया.
बस फिर क्या था मुझे हाइकु लिखनी थी और बस लिखनी थी।
सबसे पहली समस्या आई की वो १७ अक्षर लाये कहाँ से जायें वो भी ऐसे वैसे नही, कसे हुए १७ अक्षर जो की प्रकर्ती से सम्बन्ध रखते हों.
आम सबसे पहले दिमाग में आया। फिर क्या था अमरुद के पेड़ से लेकर पीपल की ठंडी हवा, पानी, शर्दी की धूप, रेत, सूरज, चाँद, तारे, आसमान, रेल, मूंगफली, केले, दोपहरी, नदी, पानी, पतंग, डोर, बचपन, गाँव, गुड, आँगन, झूले, बसंत और न जाने क्या क्या, सब एक कागज पे लिख लिए।
आदमी अगर ठान ले तो क्या नही कर सकता.
और शुरू कर दिए हाइकु लिखने
आपको पसंद न आने के बावजूद भी पसंद आयेंगे
आम का पेड़
पर आम नही है
चोरी हो गए
एक रुपया
क्या खरीदूं
पतंग या ङोर
मामा आए है
केले सेब लाये हैं
खायेंगे हम
दोपहरी में
चाचा चौधरी और
साबू की वापसी
मै हूँ और
कागज की नाव भी
बारिश कहाँ
ससुराल में
गुड की चाय को
कैसे पीता मै
इससे पहले तो मै समझता था की
एक बहुत उदास, निराश, दुखी कवि के अंतर्मन से निकली हूक को हाइकु कहते होंगे.
आश्चर्य के कारण मेरी दोनों आँखे फटी की फटी रह गई की मुझे हिन्दी की इस परजाती के बारे में इतनी देर से पता चला। मेरे जैसे लेखक के लिए इससे शर्म की बात क्या हो सकती है.
मैंने तुंरत गूगल अंकल में सर्च मारी और हाइकु के बारे में जानकारी चाही। उन्होंने हमेशा की तरह बिना आवे टावे दिए
मुझे बताया की ये एक ऐसी जापानी कविता है जिसमे ३ पंक्तियाँ होती है और पहली पंक्ति में ५, दूसरी में ७,और तीसरी में ५ अक्षर होते हैं। छोटी कविता, इतनी छोटी की शुरू होने से पहले ही ख़तम.
प्रकर्ती का वर्णन होता है इसमे, ये भी बताया गया.
बस फिर क्या था मुझे हाइकु लिखनी थी और बस लिखनी थी।
सबसे पहली समस्या आई की वो १७ अक्षर लाये कहाँ से जायें वो भी ऐसे वैसे नही, कसे हुए १७ अक्षर जो की प्रकर्ती से सम्बन्ध रखते हों.
आम सबसे पहले दिमाग में आया। फिर क्या था अमरुद के पेड़ से लेकर पीपल की ठंडी हवा, पानी, शर्दी की धूप, रेत, सूरज, चाँद, तारे, आसमान, रेल, मूंगफली, केले, दोपहरी, नदी, पानी, पतंग, डोर, बचपन, गाँव, गुड, आँगन, झूले, बसंत और न जाने क्या क्या, सब एक कागज पे लिख लिए।
आदमी अगर ठान ले तो क्या नही कर सकता.
और शुरू कर दिए हाइकु लिखने
आपको पसंद न आने के बावजूद भी पसंद आयेंगे
आम का पेड़
पर आम नही है
चोरी हो गए
एक रुपया
क्या खरीदूं
पतंग या ङोर
मामा आए है
केले सेब लाये हैं
खायेंगे हम
दोपहरी में
चाचा चौधरी और
साबू की वापसी
मै हूँ और
कागज की नाव भी
बारिश कहाँ
ससुराल में
गुड की चाय को
कैसे पीता मै
मुझे वो कविता दोबारा क्यूँ लिखनी पड़ी ?
ये उन दिनों की बात है जब मै कवि बनने की कोशिश कर रहा था
२००६ की शर्दियों के दिन थे
पर पर्याप्त प्रोत्साहन(कमेंट्स) ना मिलने की वजह से एक प्रतिभा जन्म लेने से पहले ही मिट गई
http://prashantmalik.blogspot.com/2007/01/blog-post_4332.html
http://prashantmalik.blogspot.com/2007/03/blog-post.html
इन दोनों कविताओं पर एक भी कमेंट्स ना आने की वजह से मुझे अपना विचार बदलना पड़ा.
तब ब्लोगिंग इतनी लोकपिय्र नही थी तो जाहिर सी बात है की उस पर किसी का धयान नही गया
तो मैंने सोचा की उसको वहा से डिलीट करके दोबारा पोस्ट करता हूँ
पर लगता है मै जो कहना चाहता था वो कह नही पाया या फिर लोगों की समझ नही आया(उच्च कोटि के कवि के यही लक्षण हैं)
कविता ये थी
पेड के पास
नही उगती घास
उसी कड़ी में कुछ और पंक्तिया लिख रहा हूँ इस उम्मीद के साथ की समझ आ जाए नही तो आज से ये काम बंद।
उगेगी एक दिन
पेड़ के पास
हरी हरी घास
यही है आस
होगा एक दिन
प्रकाश
पूरा है विस्वाश
होने लगा है अहसास
उगेगी एक दिन
पेड़ के पास
हरी हरी घास
पेड़ = जन-जीवन
घास = शुख-शान्ति, हरयाली
उम्मीद है इसको पढ़कर आप मुझे सीरियस कवि मानने लगेंगे
२००६ की शर्दियों के दिन थे
पर पर्याप्त प्रोत्साहन(कमेंट्स) ना मिलने की वजह से एक प्रतिभा जन्म लेने से पहले ही मिट गई
http://prashantmalik.blogspot.com/2007/01/blog-post_4332.html
http://prashantmalik.blogspot.com/2007/03/blog-post.html
इन दोनों कविताओं पर एक भी कमेंट्स ना आने की वजह से मुझे अपना विचार बदलना पड़ा.
तब ब्लोगिंग इतनी लोकपिय्र नही थी तो जाहिर सी बात है की उस पर किसी का धयान नही गया
तो मैंने सोचा की उसको वहा से डिलीट करके दोबारा पोस्ट करता हूँ
पर लगता है मै जो कहना चाहता था वो कह नही पाया या फिर लोगों की समझ नही आया(उच्च कोटि के कवि के यही लक्षण हैं)
कविता ये थी
पेड के पास
नही उगती घास
उसी कड़ी में कुछ और पंक्तिया लिख रहा हूँ इस उम्मीद के साथ की समझ आ जाए नही तो आज से ये काम बंद।
उगेगी एक दिन
पेड़ के पास
हरी हरी घास
यही है आस
होगा एक दिन
प्रकाश
पूरा है विस्वाश
होने लगा है अहसास
उगेगी एक दिन
पेड़ के पास
हरी हरी घास
पेड़ = जन-जीवन
घास = शुख-शान्ति, हरयाली
उम्मीद है इसको पढ़कर आप मुझे सीरियस कवि मानने लगेंगे
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