अगस्त की एक आखिरी उदास शाम, एक अधूरेपन का एहसास लिए। लगता है शामें हमेशा से अधूरी ही रही, जब तक लगने को होता है की शाम है, तब तक रात होने लगती है।
जामनी बादल सांसे रोके पड़े हुए हैं और उनके पीछे से सूरज बेमन से ऐसे झांक रहा है जैसे उसे छिपने की जल्दी हो।
जिंदगी के उस पड़ाव पर हूँ शायद, की पीछे मुड़के देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैं कुछ भी पूरा नहीं बन पाया। कभी कुछ पूरा नहीं कर पाया। ना प्यार, ना नफरत, ना बचत, ना फिजूलखर्ची, ना आवारापन और ना आज्ञाकारी ही।
कभी ड्रिंक नहीं की, ना स्मोकिंग, न ड्रग्स, ना नॉनवेज (ये इतनी बड़ी चीजें नहीं लगी कभी वैसे जैसा आप लोगों ने बना रखी हैं) ना कभी 5 मिनट वाला प्यार किया। कभी न साथ छोड़ने वाला अधूरापन मेरा बेस्ट फ्रेंड बना रहा हमेशा। और मैं उस अधूरेपन को भी पूरा साथ, पूरा समय नहीं दे पाया। हमेशा ऐसा लगा की जो किया उससे अच्छा कर सकता था जितना खुश रहा उससे ज्यादा रह सकता था।
पर ये अधूरेपन का सुकून ही था जिसने कभी कुछ पूरा नहीं करने दिया और जिंदगी शायद ऐसा ही चाहती है, पूरा हुआ मतलब ख़तम हुआ।
एक अच्छा बेटा बनना शायद कभी नहीं आया मेरे हिस्से. अच्छा भाई भी हो पाया ऐसा लगा नहीं कभी। कभी फेवरेट कलर, फ़ेवरेट मूवी, क्या होती है ऐसा डिस्कशन नहीं किया। कितने दोस्त हैं या कभी रहे भी या दोस्त किसे कहते है पता नहीं। दोस्त कहलाने का अधिकार खो चुका हूं।
किसी का पूरा प्रेमी बना भी या नहीं, पता नहीं। और अगर बना भी तो उसके हिस्से का प्रेम उसे दे पाया कि नहीं, इसका मूल्यांकन भी वही करेगी जिसे मैं थोड़ा बहुत भी मिला हूं। शायद 45% ही या उससे भी कम।
हर सुबह उठता हूं अधूरी नींद लिए आँखों में, और एक लिस्ट लिए दिमाग में की क्या करना है और कुछ पूरा कर पाने की जद्दोजहद में वह दिन और वो काम अधूरा छोड़कर सबकुछ करता हूं जिन्हें आप लोग जरुरी काम समझते हैं। किसी भी चीज का मन नहीं, उदास रहने में एक सुकून, एक कम्फर्ट, और खुश रहने में एफर्ट और एनर्जी वेस्टऐज ऐसा लगता है। क्यों हँसू मैं, क्या होगा उससे? क्यों भीगूँ बारिश में और क्यों बनूँ रोमांटिक?
मैं यह कभी तय नहीं कर पाया बचपन से ही कि मुझे फुर्सत के क्षण क्या करना है। पास्ट टाइम, ये क्या होता है? हॉबी, ये क्या होता है? जैसे लम्बे रुट की कोई पुरानी धीमी चलती बस, जो बस चलती ही जा रही है सबको पासिंग देती, बिना किसी डेस्टिनेशन की फिक्र किए। मानो कहीं रुकने का भी मन नहीं और कहीं पहुँचने की भी बेचैनी नहीं, जहां जाकर रुक जायेगी वही उसका गंतव्य होगा। पानी की टंकी को भरता देखना मेरा काम था और भर जाने पर छत से चिल्लाना की भर गयी, एक घंटे तक एक छोटा बच्चा कैसे एक जगह बैठ सकता है?
मेरा स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहा कभी, जिसने जहाँ धकेल दिया उसी तरफ चल पड़ा। मेरे हिस्से एक देह बची है और थोड़ी बहुत सूझ बूझ भी जिससे इतना तय कर पा रहा हूं कि दुखी होने पर थोड़ा रो लेना चाहिए, भूख लगने पर थोड़ा खा लेना चाहिए (जो भी मिले), प्यास लगने पर पी लेना चाहिए, किसी को हँसता देखकर हंसने जैसा मुँह कर लेना चाहिए और किसी के जबरदस्ती बात करने पर थोड़ी बात कर लेना चाहिए।
हाँ कुछ लोग अभी भी बचे हैं (जैसे तुम) जिसने बातें करने की इच्छा हमेशा बनी रहती है (पर कोई टॉपिक नहीं कोई बहाना नहीं) फिर भी ऐसा लगता है दिनचर्या का जरूरी हिस्सा हों। इन सबके इतर जीवन को जीने के कई और बहाने भी हैं। जैसे सब्जी लाना फल लाना होमवर्क करवाना लिफ्ट में कोई मिले तो हेलो बोल देना। जिनमें मैं आप को ज़िंदा पाता हूं रोज सुबह।
हर सुबह उठते ही मेरे ज़िंदा होने का एहसास होता है और मुझे लगता है कि मेरा होना तमाम निराशाओं, हताशाओं, आशाओं और उम्मीदों का समुच्चय है। जीवन कितना भी नीरस क्यों न लगे, मेरे हिस्से की खुशियां मुझसे नहीं छीन सकता ये भी है वैसे एक बात। इंसान भी पेड़ पौधों की तरह होते हैं खिलने और मुरझाने के समय फिक्स होते हैं। पर ये समय कितना भी उदास हो, आगे आने वाली खुशियों से तो कमजोर ही है। तुम मेरी सारी उमीदों को रोंद सकते हो, बाग़ के सारे फल फूल तोड़ सकते हो, सारे सपनों को झूठा ठहरा सकते हो, कह सकते हो कि इस अँधेरी गुफा का कोई अंत नहीं और मैं शायद मान भी लूँ पर बसंत को आने से कैसे रोक लोगे?
बोलो ?